Friday, April 24, 2015

दो अनजान..



कौन कमबख्त चाहता है क़ि पुराने तीर निकल जायें।

हम तो इस फ़िराक में हैं क़ि कब अगला तीर इस दिल को चीरे निकल जाये ।।



जो कभी अपना था ही नहीं उसका हम गम नहीं करते। 
ये तो बस ज़ख्म हैं जिनके दाग नहीं भरते ।।

दाग रहे अच्छा है , कमसकम दुनिया को मालूम तो पड़े।

खूबसूरती दाग की मोहताज़ नहीं ।


ये ऐसा दाग है जो अब हम खुद से भी छुपाते हैं
पर क्या करें कभी कभी इन ज़ख्मों को हवा लग जाती है ।।

चादर बन लिपट जाते आपसे अगर साथ होते तो, आप हवा को न कोसो

हवा को कैसे कोस दोगे, हवा ही तो है जो ग़ालिब को "शक्ती" देती है ।।


कौन कमबख्त चाहता है क़ि पुराने तीर निकल जायें।
अच्छा ही है गर एक और तीर इस दिल को चीरे निकल जाये ।।

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